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आ क्र॑न्दय॒ बल॒मोजो॑ न॒ आ धा॒ निः ष्ट॑निहि दुरि॒ता बाध॑मानः। अप॑ प्रोथ दुन्दुभे दु॒च्छुना॑ इ॒त इन्द्र॑स्य मु॒ष्टिर॑सि वी॒ळय॑स्व ॥३०॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā krandaya balam ojo na ā dhā niḥ ṣṭanihi duritā bādhamānaḥ | apa protha dundubhe ducchunā ita indrasya muṣṭir asi vīḻayasva ||

पद पाठ

आ। क्र॒न्द॒य॒। बल॑म्। ओजः॑। नः॒। आ। धाः॒। निः। स्त॒नि॒हि॒। दुः॒ऽइ॒ता। बाध॑मानः। अप॑। प्रो॒थ॒। दु॒न्दु॒भे॒। दु॒च्छुनाः॑। इ॒तः। इन्द्र॑स्य। मु॒ष्टिः। अ॒सि॒। वी॒ळय॑स्व ॥३०॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:47» मन्त्र:30 | अष्टक:4» अध्याय:7» वर्ग:35» मन्त्र:5 | मण्डल:6» अनुवाक:4» मन्त्र:30


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (दुन्दुभे) दुन्दुभी के समान वर्त्तमान ! आप (नः) हम लोगों के लिये (बलम्) सामर्थ्य को और (ओजः) पराक्रम को (आ, धाः) धरिये और शत्रुओं को (आ) सब ओर से (क्रन्दय) रुलाइये और बुलाइये तथा हम लोगों को (निः) अत्यन्त (स्तनिहि) शब्द कराइये और (दुरिता) दुष्ट व्यसनों को (बाधमानः) नष्ट करते हुए (दुच्छुनाः) दुष्ट कुत्तों के समान वर्त्तमान शत्रुओं के (अप, प्रोथ) जीतने को पर्याप्त हूजिये अर्थात् शत्रुओं को असमर्थ करिये जिससे आप (इन्द्रस्य) बिजुली की (मुष्टिः) मुष्टि के समान दुष्टों के मारनेवाले (असि) हो (इतः) इससे हम लोगों को (वीळयस्व) बलयुक्त करिये ॥३०॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! आप ऐसे बल को धारण करिये जिससे दुष्ट व्यसन, और दुष्ट शत्रु नष्ट होवें और प्रजाओं के पोषण करने को समर्थ होवें ॥३०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजा किं कुर्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे दुन्दुभे ! त्वं नो बलमोज आ धाः शत्रूनाक्रन्दयास्मान्निः ष्टनिहि दुरिता बाधमानो दुच्छुना इव वर्त्तमानाञ्छत्रूनप प्रोथ। यतस्त्वमिन्द्रस्य मुष्टिरसीतोऽस्मान् वीळयस्व ॥३०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (क्रन्दय) रोदयाऽऽह्वय वा (बलम्) (ओजः) पराक्रमम् (नः) अस्मभ्यम् (आ) (धाः) धेहि (निः) नितराम् (स्तनिहि) शब्दय (दुरिता) दुष्टव्यसनानि (बाधमानः) (अप) (प्रोथ) जेतुं पर्याप्तो भव शत्रूनसमर्थान् कुरु (दुन्दुभे) दुन्दुभिरिव वर्त्तमान (दुच्छुनाः) दुष्टश्वान इव वर्त्तमानान् (इतः) अस्मात् (इन्द्रस्य) विद्युतः (मुष्टिः) मुष्टिवद्दुष्टानां हन्ता (असि) (वीळयस्व) बलयस्व ॥३०॥
भावार्थभाषाः - हे राजंस्त्वमीदृशं बलं धरेर्येन दुर्व्यसनानि दुष्टाः शत्रवो नश्येयुः प्रजाः पोषयितुं शक्नुयाः ॥३०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा! तू असे बल धारण कर, ज्यामुळे दुष्ट व्यसन, दुष्ट शत्रू नष्ट व्हावा व प्रजेचे पोषण करण्यास समर्थ व्हावे. ॥ ३० ॥